जनसागर टुडे संवाददाता
लाखो वर्ष पूर्व हमारे ऋषि-मुनियों ने वृक्षों के महत्व को जाना और इसी कारण हमारे ग्रंथों में चाहे वह वेद हो छह शास्त्र हों,उपनिषद, पुराण हों सबमें वृक्षों को मनुष्यों का मित्र बता गया है ।वृक्षों के द्वारा ही विश्व में प्राण वायु का संचालन होता है। जैसा कि सब जानते हैं मनुष्य जब सांस लेता है तो ऑक्सीजन लेता है और कार्बन डाइऑक्साइड निकालता है और वृक्ष ऑक्सीजन निकालते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड लेते हैं ।
इस प्रकार पेड़ पौधे और मानव जाति में परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध हैं। हमारे देश में जितने भी साधु, सन्यासी ,ऋषि ,महर्षि हुए हैं और जितना ज्ञान का सृजन हुआ है ,वे सब प्रकृति की गोद में ही बैठकर लिखा गया है ।
धीरे-धीरे जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ प्रकृति का दोहन आरंभ हुआ। और वृक्षों का स्थान कंक्रीट के बने भवनों ने ले लिया। मनुष्य पर प्राणवायु का संकट तो आना ही था सो हम इस कोरोना काल में देख ही रहे हैं। पेड़ों का अंधाधुंध दोहन ने मानव हो इतना स्वार्थी बना दिया थोड़े से लाभ के लिए वह मानव के विनाश का कारण बन बैठा।
आज आवश्यकता है प्रकृति के महत्व को समझने की और वृक्षों के रोपण और उनका संरक्षण करने की यद्यपि समय-समय पर है बहुत ही सामाजिक संस्थाएं ,सरकार,एन जी ओ वृक्षारोपण कराती हैं लेकिन क्या में वृक्षारोपण वास्तविक वृक्षारोपण होते हैं।
सामाजिक संस्थाएं ,एनजीओ और सरकार पौधारोपण करवा लेती है। कागजों, दस्तावेजों मे अखबारों में हैडलाइन बन जाती है। हजार ,लाख करोड़ वृक्ष लगवा दिए हैं। किंतु क्या हमने गौर किया है
कि उन लगाए गए पौधों में से कितने पौधे जीवित रह पाते हैं जो वृक्ष बनते हैं मात्र 10 से 20 प्रतिशत। इन संस्थाओं द्वारा पौधारोपण करके अपने कार्य की इतिश्री समझने से काम नहीं चलेगा। जीवन में चाहे पौधे एक बार लगाइए ,लेकिन उनके सम्भलने तक या बड़े होने तक उनकी देखभाल और संरक्षण अवश्य कीजिए।
कुछ एनजीओ ,सरकारी संस्थाएं और कुछ सामाजिक संस्थाएं प्रतिवर्ष वृक्षारोपण पर लाखों करोड़ों रुपए खर्च कर देती है यदि उसका 10% भी खर्च उनके संरक्षण पर किया जाए तो पौधारोपण का लाभ होगा ।नहीं तो यह वार्षिक अनुष्ठान ही बन जाएंगे।
आज मनुष्य इस दोराहो पर खड़ा है, सांस लेने के लिए ओक्सीजन नहीं है ,प्राण बचाने के लिए प्राणवायु नहीं है ।जो प्राणवायु अर्थात ऑक्सीजन प्रकृति से हमें फ्री मिलती है ।उसी की थोड़ी सी मात्रा में ऑक्सीजन के लिए हमें हजारों ,लाखों रुपए चुकाने पड़ रहे हैं। यदि अब भी मानव जाति को होश नहीं आया तो उसके जीवन का अंत निकट ही दिखाई देगा।
यज्ञ का महत्व वेदों में यज्ञ को सबसे श्रेष्ठ कर्म बताया है । यज्ञो वै श्रेष्ठतम:कर्मण: अर्थात विश्व में जितने भी श्रेष्ठ कार्य हैं वे यज्ञ कहलाते हैं ।
हम बात करते हैं यज्ञ अर्थात अग्निहोत्र के महत्व को। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है की यज्ञ की अग्नि भौतिक अग्नि नहीं है
वह ब्रह्म अग्नि है। यज्ञ में डाली गई गाय के घी की आहुतियां प्रकृति को शुद्ध कर देती हैं और एक पाव घी के द्वारा किया गया यज्ञ प्रकृति में 100 टन गैस का उत्पादन करता है। प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनियों के लिए यज्ञ नित्यकर्म हुआ करता था। घर-घर अग्निहोत्र हुआ करते थे। प्रकृति हमें अन्न जल से परिपूर्ण करती थी। धीरे-धीरे हम सब अपनी परंपरा हम भूल गए और जिसका परिणाम आज भुगत रहे हैं। यज्ञ में
ओम् प्राणायस्वाहा
ओम् अपानाय स्वाहा
ओम् व्यानाय स्वाहा
ओम् समानाय स्वाहा
इन मन्त्रों की आहुति का तात्पर्य प्रकृति में प्राण वायु का संगठन, शरीर में अपान, व्यान वायु अर्थात हमारे पाचन तंत्र को ठीक करने की प्रक्रिया आदि मंत्रों का महत्व यज्ञ में समाहित है। गीता में श्रीकृष्ण ने 12 प्रकार के यज्ञों का वर्णन किया है
इन शब्दों में अग्निहोत्र को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि इससे प्रकृति और मानव जाति के अभिन्न संबंधों निर्माण होता है।प्रदूषित हवा के घातक सल्फर डाइ ऑक्साइड का असर 10 गुना कम होता है। पौधों की वृद्धि नियमित की अपेक्षा अधिक होती है। अग्निहोत्र की विभूति कीटाणुनाशक होने से घाव, त्वचा रोग इत्यादि के लिए अत्यंत उपयुक्त है।
पानी के कीटाणु और क्षारीयता भी कम होती है। इसीलिए अब हमें प्रकृति की ओर लौटना होगा । ऋषियों द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करके यज्ञ को दैनिक दिनचर्या का हिस्सा बनाना चाहिए। तभी हम प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन कर सकेंगे।
पंडित शिवकुमार शर्मा -आध्यात्मिक गुरु एवं ज्योतिषाचार्य