जनसागर टुडे
गाजियाबाद : गाजियाबाद वरिष्ठ पत्रकार रवि अरोड़ा का कहना है कि सन 1982 से लेकर 1990 तक मुझ पर थियेटर का भूत सवार था । आधा दर्जन नाटक लिखे और उनका निर्देशन भी किया । इक्का-दुक्का नाटक में अभिनय का मौक़ा भी हाथ से जाने नहीं दिया । उन दिनो दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ( एनएसडी ) और श्रीराम सेंटर हम रंगकर्मियों के मक्का-मदीना ही थे अतः शामें वहाँ गुज़रतीं । हिंदी का शायद ही कोई चर्चित नाटक होगा जिसका मंचन वहाँ न देखा हो ।
उनमें से एक नाटक ऐसा भी था जिस पर बहुत बड़ा निर्देशक ही हाथ डालता था और वह था- तुग़लक़ । जाने माने लेखक, निर्देशक और अभिनेता गिरीश कर्नाड ने वर्ष 1964 में इसे मूलतः कन्नड़ भाषा में लिखा था और बाद में भारत की तमाम अन्य भाषाओं में ही नहीं अनेक विदेशी भाषाओं में भी इसका अनुवाद हुआ ।
इसके अनेक प्रदर्शन पुराना क़िला में खुले आसमान के नीचे भी हुए और उन दिनो आलम यह था कि दिल्ली के कलाप्रेमी बड़ी बेसब्री से इस नाटक के दोबारा प्रदर्शन का इंतज़ार करते थे ।
यूँ तो यह नाटक 14वीं सदी के मुस्लिम बादशाह मोहम्मद बिन तुग़लक़ के जीवन पर था मगर इसके बहाने कर्नाड साहब ने जवाहर लाल नेहरू को घेरा था । पंडित नेहरू ने भी देश के लिये बड़े बड़े सपने देखे थे और अनेक महत्वकांशी योजनाएँ शुरू की थीं मगर कर्नाड ने नेहरू का नाम लिये बिना तुग़लक़ के बहाने नेहरू की योजनाओं की सफलता-असफलता को टटोला था ।
स्कूल के दिनो में इस सनकी बादशाह तुग़लक़ के बाबत हम सबने पढ़ा ही है । उसकी पाँच प्रमुख मूर्खताओं से सम्बंधी सवाल तो हर साल परीक्षा में आना लाजमी ही होता था । आत्ममुग्ध तुग़लक़ ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद स्थानांतरित करने की घोषणा की थी और अपने साथ पैदल ही जनता को भी दो हज़ार किलोमीटर दूर दक्षिण स्थित दौलताबाद ले गया था । इस यातना दायक यात्रा में भूखे प्यासे हज़ारों बच्चे, बूढ़े , महिलायें और बीमार मारे गये ।
बाद में उसे अपने फ़ैसले पर दुःख हुआ तो उसने अपनी पुरानी राजधानी दिल्ली वापिस चलने का आदेश दे दिया और इस बार पहले से भी अधिक लोग मारे गये । उसने अपना नया सिक्का चला दिया और ख़ास बात यह कि चाँदी व ताम्बे के सिक्के की वेल्यू एक जितनी ही रख दी ।
नतीजा लोगों ने घर में ताम्बे के सिक्के बनाने शुरू कर दिये और चाँदी के भाव उसे चला कर मुल्क की अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा दिया । उसने ज़बरदस्त टैक्स लगा दिये और आम नागरिकों की जेब ख़ाली होने से मुल्क में भुखमरी व्याप्त हो गई । मुस्लिम होने के बावजूद वह हिंदुओं का सबसे बड़ा ख़ैरख़्वाब स्वयं को कहता था और उसके अधिकांश फ़ैसले धर्म के आधार पर होते थे ।
उसने अपने पूर्ववर्ती बादशाह यानि अपने पिता का क़त्ल कर गद्दी हासिल की थी और अपने दुश्मनों को वह कभी मुआफ़ नहीं करता था । उसकी ख़ास बात यह भी थी कि वह अपनी मूर्खताओं को भी अपनी उपलब्धि क़रार देता था और उम्मीद करता था कि जनता उसकी जय जयकार करे । हास्यस्पद बात यह थी कि उसने नामी गिरामी ठगों को भी अपना वज़ीर बना दिया था ।कर्नाड साहब आप चले गये । ईश्वर आपको सद्गति प्रदान करे । काश आप जीवित होते तो यक़ीनन इन दिनो नया शाहकार तुग़लक़ रिटर्न्स लिख रहे होते ।
पहने वाले नाटक में तो आप ने केवल इशारे इशारों में सवाल उछाले थे मगर नये नाटक में तो शर्तियाँ गिरेबाँ में ही हाथ डालते । ऐसा करते भी क्यों नहीं हमारा आज का तुग़लक़ तो 14वीं सदी के तुग़लक़ से भी अधिक ‘वो’ है ।ऐतिहासिक तुग़लक़ की पाँच मूर्खताएँ मशहूर हुईं और हमारे आज के इस तुग़लक़ की बेवक़ूफ़ियाँ तो थमने का नाम ही नहीं ले रहीं हैं ।